जिन्दा रहने के लिए किसान संगठित और रचनात्मक संघर्ष करे

खेती कईली जीए-ला, बैल बिकागेल बीए-ला, यह लोकोक्ति मिथिला के ग्रामीण क्षेत्रों में खूब बोली जाती है। इसका अर्थ भी बताना चाहूंगा। किसान खेती करता है जीने के लिए लेकिन जब खेती करने के दौरान खेती का प्रधान औजार ही बिक जाये तो वैसी खेती करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। पहले खेती के लिए हल-बैल महत्वपूर्ण साधन होता था लेकिन किसानों को बीज के लिए अगर बैल जैसे खेती के महत्वपूर्ण साधन बेचना पडे इससे बडी विडंवना और क्या हो सकती है। क्या सचमुच आज खेती और खेती करने वालें खेरूतों की स्थिति बदतर हो गयी है? इस बात का पता लगाने के लिए हमें एक विहंगम दृष्टि देश की खेती पर डालना होगा।

बर्बाद और बदहाल होता 'अन्नदाता

बर्बाद और बदहाल होता 'अन्नदाता

किसानों की बेबसी, लाचारी, उसकी तकलीफें आज टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियां बनती है। किसान फसलों की बर्बादी की वजह से खुदकुशी कर रहे हैं। कहीं कोई किसान, तो किसी जगह पर किसान का पूरा परिवार खुदकुशी कर रहा है। हम इन खबरों को पढ़कर विचलित नहीं होते क्योंकि इनसे हमारा सरोकार ना के बराबर होता है। लेकिन एक बार अगर आप मदर इंडिया फिल्म मौका निकालकर देखें (ना देखी हो तो) आपकी आंखें भर आएंगी। इस फिल्म में किसानों की बदहाल और दर्दनाक तस्वीर को बेहद बारीकि से सेल्यूलाइड के पर्दे पर दिखाया गया था। कैसे एक किसान साहूकार के हाथों कर्ज के बोझ से दबता चला जाता है और उसकी जिंदगी ही नहीं बल्कि पूरा परिवार

किसान परेशान अन्नदाता' के पेट पर लात आखिर कब तक?

 परेशान अन्नदाता'

एक प्रचलित कहावत है कि 'किसी के पेट पर लात मत मारो भले ही उसकी पीठ पर लात मार दो।' मगर इस देश में आज से नहीं, सदियों से, गुलामी से लेकर आजादी तक, पाषाण युग से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक, बस एक ही काम हो रहा है और वह काम यह है कि हम अपने अन्नदाता, अपने पालनहार, किसान के पेट पर लात मारते ही चले जा रहे हैं।
 
आखिर इस अन्नदाता का दोष क्या है? यही न कि वह अपने हाथ से इस देश की 100 करोड़ आबादी को निवाला खिला रहा है। जिस पालनहार की पूजा होनी चाहिए, इबादत होनी चाहिए, उसका स्वागत सम्मान होना चाहिए, उस किसान के पेट पर लात मारी जा रही है। आखिर कब तक चलेगा यह दौर? और क्यों चलेगा?

जलवायु परिवर्तन का असर, नए अवतार में आएगा सेब

जलवायु परिवर्तन की वजह से तापमान बढ रहा है और बर्फबारी में कमी आ रही है। ऐसे में आप जो सेब खाते हैं उसका स्वाद बदल सकता है। अब उत्पादक सेब की ऐसी किस्मों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जो बदलते मौसम के अनुरूप पैदा किया जा सके।  हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के कम ऊंचाई वाले इलाकों में कम ठंडक में और जल्द पकने वाली सेब के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। वहीं परंपरागत सेब का उत्पादन अब अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों को स्थानांतरित हो रहा है। हिमाचल के सेब उत्पादक संघ के अध्यक्ष राकेश सिंह ने पीटीआई भाषा से कहा, ‘कम ऊंचाई वाले 4,000 फुट तक के क्षेत्रों में परंपरागत किस्मों का उत्पादन जलवायु परि

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