लीची कीउन्नत आर्गनिक खेती

लीची एक फल के रूप में जाना जाता है, जिसे वैज्ञानिक नाम से बुलाते हैं, जीनस लीची का एकमात्र सदस्य है। इसका परिवार है सोपबैरी। यह ऊष्णकटिबन्धीय फ़ल है, जिसका मूल निवास चीन है। यह सामान्यतः मैडागास्कर, भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान, दक्षिण ताइवान, उत्तरी वियतनाम, इंडोनेशिया, थाईलैंड, फिलीपींस और दक्षिण अफ्रीका में पायी जाती है।
मध्यम ऊंचाई का सदाबहार पेड़ होता है, जो कि 15-20 मीटर तक होता है, ऑल्टर्नेट पाइनेट पत्तियां, लगभग 15-25 सें.मी. लम्बी होती हैं। नव पल्लव उजले ताम्रवर्णी होते हैं और पूरे आकार तक आते हुए हरे होते जाते हैं। पुष्प छोटे हरित-श्वेत या पीत-श्वेत वर्ण के होते हैं, जो कि 30 सें.मी. लम्बी पैनिकल पर लगते हैं। इसका फल ड्रूप प्रकार का होता है, 3-4 से.मी. और 3 से.मी व्यास का। इसका छिलका गुलाबी-लाल से मैरून तक दाने दार होता है, जो कि अखाद्य और सरलता से हट जाता है। इसके अंदर एक मीठे, दूधिया श्वेत गूदे वाली, विटामिन- सी बहुल, कुछ-कुछ छिले अंगूर सी, मोटी पर्त इसके एकल, भूरे, चिकने मेवा जैसे बीज को ढंके होती है।

जलवायु 
जाड़े के दिनों में अधिक पाला तथा गर्मी के दिनों में गर्म हवाओ से लू को लीची से हानी होती है . पाले से नई और - कभी कभी पुरानी पत्तियां तथा टहनियां मर जाती है . फलों के पकने के समय लू चलने से इसके फलों में फटन आ जाती है . जिससे फल ख़राब होकर गिरने लगते है . अगेती किस्मों में फल सूर्य कि कड़ी धुप से झुलस जाते है . और फट भी जाते है . जिसे सनस्काल्ड कहते है . यह हानी उस समय अधिक होती है . जब तापक्रम 38 डि 0 से 0 से अधिक हो जाता है और हवा में आद्रता 60 प्रतिशत से कम हो जाती है . इसलिए उन क्षेत्रों में जहाँ का 38 डि 0 से 0 से अधिक हो जाये और आद्रता तापक्रम 60 प्रतिशत से कम हो जाये , लीची कि खेती सफलतापूर्वक करना संभव नहीं है . 38 डि 0 से 0 से कम तापक्रम और 150 सेमी 0 वर्षा वाले क्षेत्र जहाँ आद्रता 60 प्रतिशत से ऊपर हो , लीची कि खेती के लिए उत्तम है .
भूमि 
उसर भूमि छोड़कर सभी प्रकार कि भूमियों में जिसमे जीवाश्म पदार्थ अच्छी मात्रा में हो और जल निकास अच्छा हो लीची कि खेती सफलतापूर्वक कि जा सकती है . चिकनी दोमट मिटटी जिसमे जीवाश्म पदार्थ अच्छा हो और पानी न ठहरता हो लीची के लिए सर्वोत्तम है . हल्की अम्लीय भूमि में पेड़ों कि बृद्धि अच्छी होती है . ऐसी भूमि में लीची कि जड़ो के ऊपर कुछ गांठे पाई जाती है . जिनमे माइकोराइजा नामक कवक पाई जाती है . जिस कारण वृक्षों कि वृद्धी अच्छी होती है .
प्रजातियाँ 
भारत में अभी तक लीची कि सिमित जातियां ही उपलब्ध है , जिसका मुख्य कारण इसका भारत में देर से प्रवेश है यहाँ पर व्यापारिक स्तर कि कुछ प्रमुख प्रजातियाँ दी जा रही है जो निम्न प्रकार है . : -
अर्ली सीडलेस अर्ली बेदाना

इसके फल जून के दुसरे सप्ताह में पकते है . फुल हृदयाकार से अंडाकार शक्ल के होते है . प्रति फल औसत भार 21.67 ग्राम होता है . छिलका पतले गहरे लाल रंग का होता है . प्रतिफल गुदे का भार लगभग 18 ग्राम , गुदा मुलायम रंग सफ़ेद क्रीमी तथा 13.64 प्रतिशत व अम्ल 0 शर्करा . 436 % होता है . फल खाने में स्वादिष्ट एवं सुगन्धित होता है बिज बहुत छोटा और फलत बहुत अच्छी होती है .
रोज सेंटेड
इसके फल भी जून के दुसरे सप्ताह में पकते है फल पके हृदयाकार 3.12 लगभग से.मी. लम्बे 3.05 ओर से.मी. चौड़े होते हैएक फल का औसत भार 17.45 ग्राम होता है छिलका पतला व बैगनी रंग का मिश्रित होता है गुदा मुलायम रंग में भूरा सफ़ेद तथा प्रति फल औसत भार 13.29 ग्राम होता है गुदे में शर्करा कि मात्रा लगभग 12.79 % अम्ल कि मात्रा 0.33 % होती है फल खाने से मीठा और गुलाब कि तरह खुशबू युक्त होता है बिज आकार में बड़ा होता है फल उत्पादन उपज सामान्य होता है .
अर्ली लार्ज रेड
फल जून के तीसरे सप्ताह में पकता है फल तिरक्षा हृदयाकार लगभग 3.53 सेमि . लम्बे 3.03 से.मी. चौड़े होते है तथा फल का औसत भार 20.45 ग्राम होता है छिलका पतला , गहरे लाल रंग का गुदा कड़ा भूरा सफ़ेद शर्करा 10 0.88 % 0.41 % अम्लता खुशबू अच्छी और स्वाद मीठा होता है बिज आकार में बड़ा और फलत मध्यम होता है .
मुजफ्फर पुर
इसको लेट लार्ज रेड भी कहते है इसके फल जून के चौथे सप्ताह में पकते है फल आयता कार नुकीले होते है फल कि लम्बाई लगभग 3.75 से.मी. व चौड़ाई लगभग 3.17 मी से .. . और फल का औसत भार 22 0.51 ग्राम होता है गुदे कि औसत मात्रा 16.76 ग्राम प्रति फल गुदे में शर्करा 10.17 % एवं अम्लता 0.54% होती है गुदा मुलायम , सुगंधित एवं मीठा होता है उपज प्रचुर मात्रा में होती है .
कलकतिया
यह देर से पकने वाली किस्म है इसके फल जुलाई के प्रथम सप्ताह में पकते है फल आयता कार होते है फल कि लम्बाई और चौड़ाई लगभग 3.86 से.मी. व 3.40 और फल का औसत भार से.मी. 23.85 ग्रम होता है छिलका मध्यम मोती का तथा टायरियन रोज के रंग का होता है फल में औसत गुदे कि 16.32 ग्राम व गुदे में शर्करा 10.99 % और अम्ल कि मात्रा 0.443 % होती है इसका स्वाद मीठा व बिज आकार में बड़ा होता मात्रा है फटने कि समस्या नाम मात्र कि पाई जाती है .
लेट सीडलेस
इस किस्म को लेट बेदाना के नाम से भी जाना जाता है इसके फलो के पकने का समय जून का अंत या जुलाई का प्रथम सप्ताह है फल लम्बाई में 3.70 से.मी. और चौड़ाई में 3.55 से.मी. होते है लगभग प्रति फल औसत भार 25.4 ग्राम होता है छिलका पतला तथा सिकुड़ा होता है गुदा मुलायम रसीला तथा क्रीमी रंग का होता है गुदे में शर्करा लगभग 13.86 % 0.34 % और अम्लता पाई जाती है फल खाने में सुगन्धित और मीठा होता लगभग है परन्तु बिज के पास कुछ कड़वाहट लिए हुए होता है उपज अच्छी होती है .
शाही 
यह जाती भी मुजफ्फर पुर कि भांति आकर्षक अच्छे फलोत्पादक वाली है और बिहार में ब्यावासयिक स्तर पर सफलता पूर्वक उगाई जा रही है इसका फल भी जून में अंतिम सप्ताह में पकता है फल मीठा बिज मध्यम होता है .
राम नगर,गोला
यह कलकतिया जाती का म्युटेंट है इसके फल जून के अंतिम सप्ताह में पकते है यह हर प्रकार से कलकतिया जाती से उच्च श्रेणी कि है तराई क्षेत्रो में काफी प्रचलित है फलोत्पादन अच्छा है .
पौधरोपण 
पौध लगाने का उत्तम समय जून और जुलाई का महिना है . पौधे से पौधे और लाइन से लाइन कि दूरी भूमि कि उपजाऊ शक्ति के अनुसार 10 से 12 मीटर रखनी चाहिए . मई से जून के प्रथम सप्ताह तक 10 से 12 मीटर कि दूरी पर एक मीटर व्यास और एक मीटर गहराई के गड्ढ़े खोदकर 8 से 15 दिनों तक खुले रहने चाहिए . तत्पश्चात मिटटी व अच्छी सड़ी हुई गोबर कि खाद - बराबर बराबर मात्रा में लेकर कम से 2 ग्राम आर्गेनिक खाद मिश्रण डालकर गड्ढ़े कि मिटटी बैठकर ठोस हो जाये और उसमे पुन किलो : मिटटी व खाद का मिश्रण डालकर भर दिया जाये कम . दोवारा भरने के बाद भी सिंचाई आवश्यक है . ताकि गड्ढ़े कि मिटटी बैठकर ठोस हो जाये तत्पश्चात जुलाई में पौधा का रोपण किया जा सकता है . यदि खेत कि मिटटी चिकनी हो तो खेत कि मिटटी खाद व बालू रेत बराबर - बराबर मात्रा में मिला देना चाहिए .
सावधानियां
जैसा कि ऊपर पहले ही बताया जा चूका है कि लीची के पौधों में मृत्यु दर बहुत अधिक होती है . इसलिए रोपाई करते समय निम्न सावधानियां रखना आवश्यक है

1.खेत में केवल वही पौधे लगाये जाये तो पेड़ से गुटी काटने के बाद कम से कम 6 से 8 माह तक गमलो में अथवा भूमि में लगाये गए हो क्योंकि लीची कि गुटी पेड़ से अलग होने के पश्चात् बहुत कम अधिक जीवित रह पाती है . और कभी - कभी तो 60 प्रतिशत तक मर जाती है . इस प्रकार पुराने पौधे भी खेत में लगाने के बाद शत प्रतिशत जीवित नहीं रह पाते है .
2. जहा तक संभव हो लीची के दो वर्ष के पौधे खेत में लगाये जाना चाहिए , इससे कम पौधे मरेंगे .
3. रोपाई के समय पौधे को गड्ढ़े में रखकर उसके चारों और खाली जगह में बारीक़ मिटटी डालकर इतना पानी डाल देना चाहिए कि गड्ढ़ा पानी से भर जाये . इससे मिटटी नीचे बैठ जाएगी और खाली हुए गड्ढ़े में : पुन बारीक़ मिटटी डालकर गड्ढ़े को जमीन कि सतह तक भर देना चाहिए .
4पेड़ . के चारों और मिटटी डालकर मिटटी को हाथ से नहीं दबाना चाहिए क्योंकि इससे : प्राय पौधे कि मिटटी का खोल पिंडी टूट जाती है . जिससे पौधे कि जड़ टूट जाती है . और पौधा मर जाता है . इसलिए मिटटी को पानी द्वारा उपरोक्त विधि से सेट कर भर देना चाहिए .5लीची . का नया बाग लगने हेतु गड्ढ़ों को भरते समय जो मिटटी व खाद आदि का मिश्रण बनाया जाता है उसमे लीची के बाग़ कि मिटटी अवश्य मिला देना चाहिए क्योंकि लीची कि जड़ों में एक प्रकार कि कवक जिसे माइकोराइजा कहते है पाई जाती है . इस कवक द्वारा पौधे अच्छी प्रकार - फलते फूलते हैऔर नए पौधे में भी कवक अथवा लीची के बाग़ कि मिटटी मिलाने से मृत्युदर कम हो जाती है .

रोपाई के बाद पौधों कि रोपाई के बाद निम्न सावधानियां बरतनी चाहिए ताकि पौधों में म्रत्यु दर कम हो सके और पौधे अच्छी प्रकार फलफूल सके ---

1. पौधों के थालों में नमी बनी रहनी चाहिए वर्षा न होने कि स्थिति में नए पौधों के थाले सूखने नहीं चाहिए . दुसरे अधिक वर्षा कि स्थिति में थालो में पानी रुकना नहीं चाहिए .

2. सर्दियों में पाले से बचाना आवश्यक है जिसके लिए 10 के अंतर पर सिंचाई करते रहना चाहिए दिन प्रति .गर्मियों में लू से बचाने के लिए प्रति सप्ताह सिंचाई करते रहना चाहिए .

प्रारंभिक 3. अवस्था में में पौधों को पाले और लू से बचने के लिए पौधों को पूर्व कि ओर से खुला छोड़कर शेष तीनो दिशाओं में पुवाल , गन्ने कि पत्तियों और बॉस कि खप्पचियों अथवा अरहर आदि कि डंडियों कि मदद से ढ़क देना चाहिए

4. सूर्य कि तेज धुप से बचाने के लिए तनों को चुने के गाढ़े घोल से पोत देना चाहिए .

5. उत्तर - पश्चिम व दक्क्षिण दिशा में जमौआ या शीशम आदि का सघन वृक्ष रोपण वायु अवरोधक के रूप में किया जाना चाहिए .

6. फलत वाले पेड़ों में सर्दियों में 15 दिन के अंतर पर और गर्मियों में फल बनने के पश्चात् लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए जल्दी जल्दी सिंचाई करते रहना चाहिए इस समय पानी कि कमी नहीं होना चाहिए . अन्यथा झड़ने और फटने का डर रहता है .
जैविक खाद
1  नीम वजन 20 किलो ग्राम और अरंडी कि खली वजन 50 किलो ग्राम इन खादों को अच्छी तरह मिलाकर मिश्रण तैयार 2 1 से किलो ग्राम प्रति 6 से 12 साल तक के पौधे को पौधा 3 से 5 किलो ग्राम से 1 साल 5 साल तक पौधे को कर प्रति पौधा साल में दो बार देना चाहिए पहला - जून जुलाई तथा दूसरा अक्तूबर माह में देते 12 साल के ऊपर के पौधे को आधा किलो ग्राम प्रति वर्ष उम्र के हिसाब से जैसे 20 साल के पौधे को 10 किलो ग्राम खाद देते है है .
अच्छी सड़ी हुयी गोबर कि खाद पहले साल 10 किलो ग्राम दुसरे साल 20 किलो ग्राम तीसरे साल 30 किलो ग्राम 4 थे साल 40 किलो ग्राम पांचवे साल या उससे ज्यादा उम्र के पौधे को प्रति साल किलो ग्राम प्रति पौधा देते है प्रत्येक तरह का खाद देने के बाद पानी देना आवश्यक है .
 से भरपूर फुल भी आएगा और भरपूर फसल या फल सेहत मंद स्वादिष्ट तैयार होगा .
सिंचाई 
जलवायु और मिटटी कि किस्म के अनुसार लीची के बाग़ कि सिंचाई कि जाना चाहिए बलुई मिटटी में जल्दी - जल्दी और चिकनी मिटटी में कुछ देर से सिंचाई कि आवश्यकता होती है . इसी प्रकार नम जलवायु में कम और खुश्क जलवायु में अधिक अर्थात - बार बार सिंचाई कि आवश्यकता होती है . उत्तर भारत में वर्षा के बाद सर्दियों में पाले से बचाने के लिए उस समय सिंचाई अवश्य कर देनी चाहिए जब पाला पड़ने का भय हो . साधारण अवस्था में जाड़े में दो सिंचाई पर्याप्त है . फ़रवरी से जून तक 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करना आवश्यक है . फलों के पकने के समय भी लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए - बार बार सिंचाई कि आवश्यकता पड़ती है . छोटे पौधों को गर्मियों में हर सप्ताह तथा जाड़े में हर 15 दिन बाद सींचना आवश्यक है .
खरपतवार नियंत्रण 
बाग़ को खरपतवारों से बचाना आवश्यक है  खरपतवारों के अधिक होने से छोटे पौधों कि वृद्धी रुक जाती है . तथा बड़े पेड़ों में किट एवं व्याधियों का प्रकोप अधिक हो जाता है क्योंकि गर्मी सर्दी से बचने के लिए किट खरपतवारो में छिप जाते है . और अपनी संबर्धन कतरे रहते है दुसरे सूर्य कि धुप जमीन तक न पहुंच पाने के कारण वहां पर कवक जनित बीमारियाँ पनपती रहती है . इसलिए खरपतवारों का नियंत्रण भी आवश्यक है . इनके नियंत्रण के लिए वर्षा के बाद सितम्बर के महीने में हल्की जुताई कर देनी आवश्यक है . इसी जुताई पर खाद भी दिया जाना चाहिए . गर्मियों के दिनों में चुकी बार बार सिंचाई करनी पड़ती है . इसलिए उन दिनों में फलों और पेड़ों को और व्याधियों से बचाने के लिए एक या दो बार बहुत हल्की जुताई कर खरपतवारों को नियंत्रित किया जा सकता है .
कीट नियंत्रण
लीची लीफ रोलर
जुलाई से सितम्बर तक नयी पत्तियां निकलने पर इस कीड़े कि गिडार पत्तियों के सिरों का धागे जैसे पदार्थ से बांधकर अन्दर कि ओर मोड़ देती है . जिससे पत्तियां गोल दिखाई पड़ने लगती है . और गिडार अन्दर ही पत्तियों को खाती रहती है . इसकी रोकथाम के लिए नीम का काढ़ा या गौ मूत्र माइक्रो झाइम के साथ मिला कर छिड़काव करे .
लीची लीफ माइनर
पत्तियों के दोनों सतहों के बिच कीड़े कि गिडार सुरंग बनाती हुई आगे बढ़ती रहती है . गिडार पूर्ण अवस्था प्राप्त करने के उपरांत एक स्थान पर सफ़ेद झिल्ली के अन्दर प्यूपा में बदल जाती है . इस किट का आक्रमण प्रारंभ होने पर गौ मूत्र या नीम के काढ़े का माइक्रो झाइम के साथ मिलाकर छिड़काव करे .
छाल खाने वाली गिडार 
दो टहनियों के जोड़ के पास ही छेद बनाकर इसमें गिडार छिपी रहती है . इसकी गिडार छाल खाकर मल निकलती है जो गुच्छों के रूप में पेड़ के तने पर लगे दिखाई पड़ते है . मल के इन गुच्छों को हटा कर छिद्र को साफ करने के बाद उसमे मिटटी का तेल या पेट्रोल या क्लोरोफार्म में रुई भिगोकर तार या इंजेक्सन कि मदद से छेद के अन्दर डालकर ऊपर से मिटटी से बंद कर देने पर गिडार अन्दर ही मर जाती है . सल्फास कि आधी गोलीभी प्रति छिद्र डालकर मिटटी से बंद किया जा सकता है . जो एक अत्यंत सफल उपचार है . टहनियों तथा डालियों को जहाँ पर कीड़ा लगा हो . गौ मूत्र या नीम के काढ़ा का छिड़काव क़र तर क़र देना चाहिए .
लीची फ्रूट बोरर 
इसकी गिडार फलों में छेद कर देती है , जिसके कारण फल अन्दर ही अन्दर ख़राब हो जाता है . और फल कि बढ़बार रुक जाती है . कभी - कभी अधिक प्रकोप होने पर फल सुख कर भी गिरने लगते है इसके रोक थम के लिए फल बनने के 10-15 दिन बाद गौ मूत्र और  नीम का काढ़ा का हर 15 - 20 दिन बाद छिड़काव करते रहना चाहिए .
लीची माईट
यह एक छोटे आकार का किट है जो पत्तियों कि निचली सतह पर चिपका रहता है . और पत्तियों का रस चूसता रहता है यह अपना मल पत्तियों कि निचली सतह पर छोड़ता रहता है जो लसलसा पदार्थ होता है . इससे पत्तियों के स्टोमेटा बंद हो जाते है और पेड़ कि बृद्धि एवं फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है इस अष्टपदी के नियंत्रण हेतु गौ मूत्र और  नीम का काढ़ा का छिड़काव करना चाहिए .
मिली बग
आम के पेड़ो के साथ लगे लीची के पेड़ो पर इसका प्रकोप देखा गया है . यह किट फिलो एवं प्ररोहों का रस चूसकर इनको निष्क्रिय बना देता है जिससे लीची के फल गिरने लगते है इसके नियंत्रण हेतु दिसंबर के महीने में पेड़ के तने पर पालीथीन लपेटकर दोनों सिरों को रस्सी से कसकर बंध दिया जाता है जिससे किट पेड़ के ऊपर नहीं चढ़ पाते और वह पालीथीन से फिसलकर निचे गिर जाते है . मई जून के महीने में पेड़ के निचे थालो में नीम की खाद या गैमेकसीन पाउडर डाल कर - निराई गुड़ाई करने से इस किट का नियंत्रण हो जाता है .

सूत्र कृमि 
सूत्र कृमि जमीन के अन्दर पाया जाता है . लीची में प्रोटीलैंथ्स नामक सूत्र क्रीमी का प्रकोप देखा गया है यह जड़ो के ऊपर - छोटे छोटे धब्बों के रूप में दिखाई देते है यह सूत्र क्रीमी एक स्थान से दुसरे स्थान तक धीरे - धीरे पहुंच जाते है या जुताई - गुड़ाई करते समय अथवा सिंचाई के पानी के द्वारा एक स्थान से दुसरे स्थान तक पहुच जाते है . जिन बागों में वर्ष भर नमी बनी रहती है . उन बागों में इनका प्रकोप पाया जाता है . इससे ग्रसित पौधों का विकास अच्छा नहीं होता और फलत भी कम होता है . इसके नियंत्रण हेतु 400 किलो ग्राम नीम का खाद प्रति हेक्टेयर कि दर से बाग में डालकर जुताई व सिंचाई कर देनी चाहिए .
रोग नियंत्रण
लीची का विगलन रोग 
इस रोग का आक्रमण फलों के पकने के समय होता है . इस रोग के प्रभाव से सर्वप्रथम गुदा मुलायम होकर सड़ने लगता है . छिलके का रंग पहले हल्का भूरा और बाद में गहरा भूरा हो जाता है . रोग का प्रकोप फलों पर पेड़ों एवं भंडार व दोनों ही जगह होता है . इसकी रोकथाम के लिए फलों को पकने से पहले नीम का काढ़ा गौमूत्र के साथ मिलाकर छिड़काव करना चाहिए .

लीची का एलगत रस्ट
इस रोग का आक्रमण उन क्षेत्रों में अधिक होता है जंहा आद्रता अधिक बनी रहती है जैसे पहाड़ो कि तलहटी और तराई क्षेत्र इस रोग का कारण सिफैतन्योरस नामक काई है . वर्षा ऋतू में तने एवं पत्तियों के ऊपर अधिक नमी होने कि दशा में हल्के रंग कि काई फ़ैल जाती है . जिसके फलस्वरूप प्रकाश संस्लेषण भोजन बनाने कि क्रिया में बाधा उत्पन्न हो जाती है और पौधे का विकास रुक जाता है . इसकी रोकथाम के लिए बाग़ में पानी का निकास अच्छा होना चाहिए और नीम के तेल का छिड़काव लगातार करते रहना चाहिए .
लीची का लीफ ब्लाक पूर्ण धब्बा रोग
इस रोग में सर्व प्रथम पत्तियों कि दोनों सतहों पर छोटे छोटे पीले या गहरे पीले रंग के धब्बे बनते है जो उपरी सतह पर अधिक स्पष्ट दिखाई देते है कई छोटे छोटे धब्बे निकलकर बड़े धब्बे में बदल जाते है पत्तियां सूखने लगती हैअधिक प्रकोप कि अवस्था में उत्पादन पर प्रति कुल प्रभाव पड़ता है  नीम काढ़ा या गौ मूत्र का छिड़काव सितम्बर से अक्तूबर तक पर्णीय या सम्पूर्ण पौधों पर किया जाना चाहिए .
असामयिक फल झडन 
लीची में फल झड़ने कि अधिक समस्या तो नहीं है परन्तु फल बनने के बाद सिंचाई कि कमी होना अथवा गर्म हवाओ का प्रकोप होने से लीची के फल झड़ने लगते है जैसा कि पहले बताया जा चूका है कि फल बनने के पश्चात् बाग में लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए बराबर सिंचाई करते रहना चाहिए 50 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद खेत में समान रूप से बखेर देनी चाहिए। ५० किलो गोबर की खाद में 1 किलो ट्राईकोडरमा मिला कर बुबाई करनी चाहिए 

फलो का फटना
प्राय उन स्थानों में जहाँ का मौसम अधिकगर्म और सुखा रहता है फल फटने कि समस्या उत्पन्न हो जाती है बिभिन्न प्रजातियों में भी फल फटने कि क्षमता अलग - अलग होने के साथ - साथ दिन और रात्रि के तापक्रम में अधिक उतार चढ़ाव होने पर भारी सिंचाई करने से उक्त समस्या उत्पन्न हो जाती है यह भी प्रकाश में आया कि अगेती किस्म के फलो में फटने कि समस्या पछेती किस्म से अधिक है इसलिए उन क्षेत्रो में जहाँ से 38 तापक्रम ग्रे से अधिक होता है पछेती किस्म ही लगानी चाहिए और में बाग लगातार आद्रता बनाये रखने के लिए बराबर - समय समय पर सिंचाई करते रहना चाहिए जिससे भूमि सूखने न पाए हवा अवरोधक पौधे भी फलो को झड़ने एवं फटने से बचने में मदत करते है मैग्नीशियम का छिड़काव करने से फलो को रुकने में काफी सफलता मिलती है तथा फलो के रंग का बिकास अच्छा होता है और 40 से 50% उत्पादन बढ़ जाता है .
नीम का काढ़ा 
24 नीम का पत्ती ताजा हरा तोड़कर कुचल कर पीसकर किलो 5 लीटर पानी में पकाए जब पानी 20 0-25 लीटर रह जाय उतार कर ठंडा कर 500 ग्राम प्रति पम्प पानी में मिलाकर किसी भी तरह के रोग व किट पतंगों के प्रकोप होने पर पौधे या फसल पर छिड़काव करे .
गौमूत्र 
देसी गाय का 10 लीटर गौ मूत्र लेकर कांच के बर्तन या पारदर्शी प्लास्टीक के बर्तन या जार में लेकर 10 -15 दिन धुप में रखकरआधा लीटर प्रति पम्प लेकर पानी में मिलाकर रोग ग्रस्त किट ग्रस्त पौधों या फसलो पर छिड़काव करे .
तुड़ाई
किस्म के अनुसार लीची के फल पकने के समय गुलाबी , पिला पीलापन लिए हुए हरे हो जाते है तथा उनके छिलके पर उपस्थित ग्रंथिया चपटी हो जाती है लीची के फलो को टहनी में गुच्छो सहित तोड़ना चाहिए इसमें गुच्छो को रखने और ले जाने में आसानी होती है इससे फल अच्छे और ठीक अवस्था में होते है फलो के गुच्छे टोकरियों में पत्तियां बिछा कर उन पर रखी जाती है और इस प्रकार बेचने हेतु बाजार ले जाते है फलो को यदि दूर के बाजारों में भेजना हो तो फलो को भूरा रंग आने पर ही तोड़ लेना चाहिए तथा लकड़ी कि पतियों में पैक कर बाजार भेज देना चाहिए फल तोड़ने के 24 घंटे बाद रंग बदलने लगते है तथा 3-4 दिनों बाद कत्थई रंग के हो जाते है .
उपज
गुटी द्वारा तैयार पौधे 5 6 वर्षो बाद फलाना प्रारंभ कर देते है लीची में फुल मार्च महीने में आते है तथा फल मई के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम या द्वितीय सप्ताह तक पकते है लीची का पेड़ लगभग 20 वर्ष में पूर्ण बिकसित हो जाता है - और पूर्ण बिकसित पेड़ से लगभग से 3 कुंतल फल प्राप्त हो जाते है .
भण्डारण
लीची के फलो को डंठल तोड़कर भली भंति साफ कर ले पोलीथिन कि छिद्र युक्त थैलियों में बंद 40 से 43 डिग्री से करके ग्रे .. तापक्रम तक 90 आद्रता पर शीत गृह में 28 से 30 दिन तक अच्छी दशा में भण्डारण किया जा सकता है गुदे के चीनी . % 40 के घोल में बंद करके जीरो डिग्री से ग्रे . से -17.8 डिग्री से निचे ग्रे .. तापक्रम पर 270 से 360 दिनों तक अच्छी दशा में रखा जा सकता है .

organic farming: 
जैविक खेती: