भूजल संकट : कृषि के लिए घातक
वर्तमान में कृषि, पशु-पालन, उद्योग-धंधों तथा पेयजल हेतु नदी जल व भूजल का ही सर्वाधिक उपयोग हो रहा है। उक्त उपयोगार्थ नदी जल से पर्याप्त पूर्ति न होने के फलस्वरूप भूजल का पर्याप्त दोहन किया जाता है। फलतः भूजल स्तर 1 से 1.5 मीटर प्रतिवर्ष के हिसाब से नीचे गिरता जा रहा है। परिणामस्वरूप भूजल के ऊपरी जल स्रोत सूख रहे हैं। अतः जल जल की आवश्यकता की पूर्ति हेतु भूजल के निचले एवं गहरे जल स्रोतों का दोहन किया जा रहा है, इनमें अधिकांश जल लवणीय गुणवत्ता का मिल रहा है। इसके कारण मृदा स्वास्थ्य खराब होने के कारण फसलोत्पादन व मानव स्वास्थ्य पर इसके अवांछित परिणाम स्पष्ट अनुभव किए जा रहे हैं। इसके साथ ही पानी के भूमि से निकालने की लागत मे वृद्धि से फसल की उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है।
अतः आज हमारे समक्ष यह विचारणीय प्रश्न है कि हम अपने भूजल स्रोतों को किस प्रकार सुरक्षित रखकर कृषि, मानव व पशुधन के स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाए रखें। विज्ञानवेत्ता मानते हैं कि निःसंदेह ‘पौधों का प्रथम भोज्य’ जल ही है। अतः जल संरक्षण सर्वोपरि है। जल के प्रत्येक बूंद का हमारे जीवन व हमारी कृषि संपदा रक्षण में बड़ा महत्व है।
भूजल स्तर के गिरने के कारण
इस समय देश के सभी भागों में जल-स्तर दिन-पर-दिन गिरता जा रहा है। जिसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार बताए जाते हैं-
1. अधिक उत्पादन और कम पानी चाहने वाली फसल- प्रजातियों का प्रादुर्भाव- फसलों की नवीनतम बौनी एवं संकर प्रजातियों में सिंचाई जल की अधिक आवश्यकता होती है। इन प्रजातियों में अधिक उत्पादन हेतु अधिक मात्रा में पोषण-तत्वों की आवश्यकता होती है, जिसकी पूर्ति रासायनिक उर्वरकों द्वारा की जाती है, परिणामस्वरूप अधिक सिंचाई जलावश्यकता के चलते अधिक मात्रा में भूजल का दोहन या नदियों एवं नहरों के पानी का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है, जो भूजल स्तर के पतन के मूल रूप से उत्तरदायी है।
2. अधिक पानी चाहने वाली नकदी फसलों का उगाया जाना- वर्तमान में हम कृषि के मूलभूत सिद्धांत ‘फसल चक्र’ (Crop Rotation) को प्रायः विस्मृत करते जा रहे हैं। अतः हमारे कृषक बंधु केवल अधिक मात्रा में धनार्जन की इच्छा से अधिक पानी चाहने वाली नकदी व अन्य फसलों जैसे-आलू, गन्ना, धान, गेहूं इत्यादि का अधिकाधिक उत्पादन कर रहे हैं। परिणामस्वरूप इन उत्पादों हेतु अधिक सिंचई जल की आवश्यकता की पूर्ति की इच्छा से भूजल का दोहन हो रहा है, किंतु दुःख का विषय है कि इसके फलस्वरूप गिरते भूजल स्तर पर बहुत कम लोगों का ध्यान है।
3. बाढ़ सिंचाई विधि का प्रयोग करना- आजकल कृषि के यंत्रीकरण के फलस्वरूप जल के दोहन में अंधाधुंध वृद्धि हो रही है, क्योंकि पंपसेट व ट्यूबवेल द्वारा कम लागत व कम समय में अधिक जल बाहर निकाला जाता है, जिसके कारण हमारे कृषक कृषि फसलों में बाढ़ सिंचाई (Flood Irrigation System) का प्रयोग करते हैं, अतः इससे भूजल स्तर अधिक तीव्र गति से पतन को प्राप्त हो रहा है।
इनके अतिरिक्त कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारणों की संक्षिप्त चर्चा अनिवार्य है-
1. जीवांश खाद (Organic Maures) के प्रयोग का अभाव- जीवांश खादों का प्रयोग न करने से मृदा में उपलब्ध जीवांश कार्बन की मात्रा 0.0 प्रतिशत से 0.5 प्रतिशत के बीच रह गई है, जबकि स्वस्थ मृदा के लिए जीवांश कार्बन की मात्रा 0.8 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। खेद का विषय है कि मृदा की जल धारण क्षमता घटाने के कुप्रभाव से भूजल का दोहन हो रहा है।
2. भूजल का रिचार्ज न किया जाना- सामान्यतः हरित क्रांति 1966-67 के पश्चात् उच्च उपज हेतु अधिक जल की मांग के फलस्वरूप भूजल दोहन बढ़ गया है, किंतु जल की मांग के अनुपात में भूजल को पुनर्भरित (रिचार्ज) नहीं किया जा रहा है। राष्ट्रीय आकड़ों के अनुसार देश मे जल विकास की स्थिति 58 प्रतिशत है। अर्थात् 100 लीटर भूजल के दोहन के उपरांत जल स्रोत को मात्र 58 लीटर जल ही लौटाया जा रहा है।
3. प्रतिवर्ष वर्षा की मात्रा का उत्तरोत्तर घटना- ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप जलवायु में निरंतर परिवर्तन हो रहा है, फलतः वर्षा की मात्रा निरंतर घटती जा रही है, परंतु कृषि फसलों, मानव व पशुओं तथा उद्योगों हेतु भूजल का उपयोग निरंतर बढ़ता जा रहा है। साथ ही मानव, पशुओं व उद्योगों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है।
4. कृषकों की निःशुल्क विद्युत उपलब्ध कराया जाना- कुछ राज्यों की सरकारें कृषक भाइयों को निःशुल्क विद्युत उपलब्ध करा रही हैं। खेद का विषय है कि हमारे कृषक अनियंत्रित रूप से भूजल का दोहन कर उसका अपव्यय करते जा रहे हैं।
भूजल स्तर के पतन से हानियां
1. भूजल स्रोतों के सूखने की पूर्णतः संभावना,
2. कृषि फसलों व शाकाहार के लागत मूल्य में वृद्धि की संभावना,
3. हरे चारे की समस्या,
4. दुग्ध उत्पादन में घटोतरी की संभावना।
भूजल स्तर के पतन को रोकने के उपाय
1. फसल चक्र (Crop Rotation) के सिद्धांत को आत्मसात किया जाए।
2. ड्रिप एवं बौछारी सिंचाई विधि एवं क्यारी विधि अपनाई जाए।
3. जीवाश्म खादों की मात्रा बढ़ाई जाए।
4. भूजल स्तर को (रेन वाटर) से रिचार्ज किया जाए।
5. तालाबों, पोखरों एवं झीलों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग की जाए।
6. पूर्व प्रधानमंत्री श्रद्धेय श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा प्रारंभ की गई (रिवर लिंकेज योजना, 2002) को अपनाया जाए।
7. प्रत्येक गांव, शहर, सड़क के किनारे तथा बंजर भूमि में अधिकाधिक वृक्षारोपण किया जाए।
8. कृषकों को निःशुल्क विद्युत की आपूर्ति न कर उनसे यथोचित विद्युत मूल्य अवश्य ही लिया जाए।
निष्कर्षतः यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि हर परिस्थिति मे सिंचाई जल का समुचित प्रयोग एवं प्रबंधन फसलोंत्पादनार्थ किया जाए, तभी हमारे देश व परमपावनी पूजनीया वसुंधरा माता की गोद में खाद्यान्न, दलहन, तिलहन, चारा फसलों, शाकाहार इत्यादि के उत्पादन में निरंतर वृद्धि होगी। कृषि संस्कृति के रक्षण व भूजल के संरक्षण के प्रति सारे विश्व को प्रतिबद्ध होने की आवश्यकता है। अपने द्वारा इस दिशा में कृत प्रयत्नों के फलस्वरूप ही हम यह गर्वोक्ति करने में समर्थ हो सकते हैं-
Author: रमाकांत सिंह चंदेल
Source: पर्यावरण विमर्श