कब आएंगे किसानों के ‘अच्छे दिन’?

कब आएंगे किसानों के ‘अच्छे दिन’?

भारतीय अर्थव्यवस्था प्राचीन काल से ही कृषि आधारित रही है। यहां उन्नत कृषि संस्कृति भी रही है। तभी तो यहां ‘उत्तम कृषि, मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान’ की लोकोक्ति प्रचलित थी जिसमें कृषि को सर्वोत्तम बताया गया। किसानों को सम्मानपूर्वक ‘अन्नदाता’ कहा गया है। किंतु अंग्रेजों के शासनकाल में दोषपूर्ण भूमि व्यवस्था के दुष्परिणाम भारतीय किसानों ने भुगते हैं। कृषि प्रधान भारत के 90ः किसान इस दौरान जमींदारी प्रथा के कारण भूमि की उपज के सुख से वंचित थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भूमिधर कम थे एवं भूमिहीन ज्यादा, खेती के पिछड़ेपन के कारण प्रति हेक्टेअर उत्पादन बहुत कम था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बा

खेती-किसानी का एक सूखा तो खत्म हुआ

खेती-किसानी का एक सूखा तो खत्म हुआ

यह शायद सबसे बड़ी नीतिगत घोषणा है। केंद्र सरकार द्वारा बजट में किसानों को उनकी फसलों के लागत मूल्य का डेढ़ गुना ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ दिए जाने की घोषणा से अब तक के हताश किसानों में उत्साह का संचार होगा। सरकार की इस घोषणा से चुनाव पूर्व किया गया वादा भी निभाया गया प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2017 मंदसौर, यवतमाल व विदर्भ के किसान असंतोष का गवाह बना। तमिलनाडु के किसान संगठनों ने तो दिल्ली के बोट क्लब पर कई सप्ताह तक धरना दिया और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए कई नाटकीय तरीके अपनाए। देश के बाकी हिस्सों का हाल भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। एक के बाद एक तकरीबन पूरे देश से ही किसानों द्वारा आत्महत्या क

योगी सरकार के एक साल में किसान ?

योगी सरकार के एक साल में किसान ?

प्रचंड बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार आई जिसने किसानों के लिए जो वादे किये योगी सरकार का एक साल पूरा होने के बाद एक ओर सरकार अपनी उपलब्धियों को गिना रही है व्ही किसान शायद फिर से पिछड़ता हुआ दिखाई दे रहा है हलाकि पूर्व सरकरों के अनुपात में योगी सरकार के कार्य बीस नजर आये लेकिन चुनावी वादों को पूरा करने में सरकार असहज दिखी  
 

चुनाव से पूर्व घोषणा पत्र में किसानों के लिए किय गए वादे 

हम खेती को नौकरियों से अव्वल कब मानेंगे

हम खेती को नौकरियों से अव्वल कब मानेंगे

रूस में अरबपति कारोबारी और नौकरी पेशा भी कर रहे खेती की ओर रुख

यूरोपीय देश ग्रीस के वर्तमान आर्थिक संकट पर पूरी दुनिया में बवाल मचा हुआ है। आखिर क्या वजहें हो सकती हैं, जिससे इस देश की अर्थव्यवस्था चकनाचूर हो गई? मैं कोई पेशेवर अर्थशास्त्री नहीं, ना ही कोई विद्वान, लेकिन आपसी चर्चाओं पर गौर करूं तो कहीं ना कहीं युवाओं में स्वावलंबी होने के लिए नकारापन होना एक बड़ी समस्या के तौर पर देखा जा सकता है। ग्रीस की समस्या एक सांकेतिक इशारा है, दुनिया के अन्य देशों के लिए।

 

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