क्लाइमेटिक जोन की खेती से आ सकती है कृषि क्षेत्र की रफ्तार

पेट भरने वाला कृषि क्षेत्र अब खुद की समस्याओं के पहाड़ से दबता जा रहा है। उबारने की इसकी जितनी कोशिश की गई, वह उतनी ही मुश्किलों के दलदल में धंसता जा रहा है। हरितक्रांति की सफलता की खुमारी में डूबा कृषि क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा लगातार नजरअंदाज होता रहा, जिसके चलते खेती की मूलभूत जरूरतों और बुनियादी ढांचों पर गंभीरता नहीं बरती गई। यही वजह है कि मौजूदा खेती खुद के साथ किसानों के लिए मुश्किलों का सबब बन गई है। थम गई विकास की दर को बढ़ाने के लिए खेती में वैज्ञानिक बदलाव जरूरी हो गया है।
दरअसल हमने अनाज पैदा करना और उत्पादन बढ़ाना तो सीख लिया लेकिन सूझबूझ की कमी बनी रही, जिससे खेती की विकास दर थम सी गई है। इसे उभारने और रफ्तार देने के लिए वैज्ञानिक बदलाव जरूरी हो गया है।

एग्रो क्लाइमेटिक जोन
प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर आरबी सिंह का कहना है कि कृषि क्षेत्र की विकास दर को रफ्तार केवल एग्रो क्लाइमेटिक जोन के हिसाब से वैज्ञानिक दे सकता है। एग्रो क्लाइमेटिक जोन के हिसाब से पंजाब व हरियाणा की धान की खेती के लिए अनुकूल नहीं है। इसी तरह महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में गन्ने की खेती जबर्दस्त आर्थिक लाभ के लिए की जाती है, जो सर्वथा वहां की जलवायु के हिसाब से उचित नहीं है।

पूरा देश 15 एग्रो क्लाइमेटिक जोन में है विभाजित
एग्रो क्लाइमेटिक जोन के हिसाब से खेती के विपरीत जिस हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खेती होती थी अब वहां धान व गन्ने की शत प्रतिशत सिंचाई पर निर्भर रहने वाली फसलों की खेती होने लगी है। पंजाब भूजल का अत्यधिक दोहन होने से जल स्तर नीचे चला गया है, जिसे डार्क जोन घोषित कर दिया गया है। नीति आयोग के मसौदे के मुताबिक पूरे देश को 15 एग्रो क्लाइमेटिक जोन में विभाजित किया गया है। प्रत्येक जोन को जलवायु और सामाजिक- आर्थिक स्थितियों के अनुरूप बांटा गया है।

पोषक तत्वों वाली खेती हाशिये पर चली गईं

हरितक्रांति के बाद कृषि क्षेत्र में आने वाली चुनौतियों पर ध्यान नहीं दिया गया। यही वजह है कि देश में धान व गेहूं जैसे अनाज की पैदावार जरूरत से ज्यादा होने लगी, जबकि अन्य पोषक तत्वों वाली फसलों की खेती हाशिये पर चली गईं। दलहनी व तिलहनी फसलों के साथ ज्वार, बाजरा, रागी, मक्की, सावां, कोदो व मडु़आ समेत दर्जन भर फसलों की खेती सिमट गई। हैरानी इस बात की है कि पोषक तत्वों से भरपूर इन फसलों की खेती वर्षा आधारित है, जिन्हें सिंचाई की कोई जरूरत नहीं है। तिलहनी फसलों की खेती इतनी कम हो गई है कि खाद्य तेलों के लिए विलायत का मुंह ताकना पड़ता है, जिस पर सालाना 80 हजार करोड़ से अधिक विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है।

फर्टिलाइजर व कीटनाशक तैयार किये गये

हरितक्रांति के साथ नीति नियामकों और कृषि वैज्ञानिकों का पूरा ध्यान धान, गेहूं और गन्ने पर केंद्रित रहा। इन फसलों की खेती के लिए नई-नई प्रजातियां, फर्टिलाइजर व कीटनाशक तैयार किये गये। इन फसलों की शत प्रतिशत उपज को समर्थन मूल्य पर खरीद की गारंटी मिलने लगी। इन फसलों को मिले प्रोत्साहन से बाकी फसलें नजरअंदाज होती गई।

पानी बहुल वाली फसलों की खेती पर जोर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु और तेलंगाना में गन्ने की खेती हो रही है, जहां के ज्यादातर हिस्सों में पानी की पहले से ही किल्लत थी। कृष्णा व काबेरी नदियों पर बने बांध से खोदी गई नहरों के चलते सामान्य खेती की जगह पानी बहुल वाली फसलों की खेती पर जोर है। नदी के पानी को लेकर राजनीतिक कड़वाहट गंभीर हो गई है। दोनों राज्यों के लोग सिंचाई के पानी के साथ अब पेयजल के लिए मरने मारने पर उतारु हो जाते हैं। डॉक्टर सिंह ने बताया कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के शोध संस्थानों और संबद्ध कृषि विश्वविद्यालय स्थानीय जरूरतों और क्लाइमेटिक जोन के हिसाब स्थापित किये गये हैं।