जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव

climate change

जलवायु परिवर्तन की चुनौती भले ही रोजमर्रा की आजीविका के संघर्ष एवं व्यस्त दिनचर्या में लीन लोगों के लिए महज खबर या अकादमिक विषय सामग्री हो। लेकिन सच्चाई तो यह है कि हवा, पानी, खेती, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका एवं आवास आदि सभी पर प्रतिकूल असर डालने वाली इस समस्या से देर-सबेर, कम-ज्यादा हम सभी का जीवन प्रभावित होता है, चाहे वह समुद्री जल-स्तर बढ़ने से प्रभावित होते तटीय या द्वीपीय क्षेत्रों के लोग हों या असामान्य मानसून अथवा जल संकट से त्रस्त किसान। विनाशकारी समुद्री तूफान का कहर झेलते तटवासी हों अथवा सूखे एवं बाढ़ की विकट स्थितियों से त्रस्त लोग। असामान्य मौसम जनित अजीबो-गरीब बीमारियों से जूझते लोग हों या विनाशकारी बाढ़ में अपना आवास एवं सब कुछ गवां बैठे तथा दूसरे क्षेत्रों को पलायन करते लोग। दरअसल ये तमाम लोग जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं।
 

जलवायु परिवर्तन का सम्भावित प्रभाव

1. सन् 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10-40 प्रतिशत की कमी आएगी।
2. रबी की फसलों को ज्यादा नुकसान होगा। प्रत्येक 1 से.ग्रे. तापमान बढ़ने पर 4-5 करोड़ टन अनाज उत्पादन में कमी आएगी।
3. पाले के कारण होने वाले नुकसान में कमी आएगी जिससे आलू, मटर और सरसों का कम नुकसान होगा।
4. सूखा और बाढ़ में बढ़ोत्तरी होने की वजह से फसलों के उत्पादन में अनिश्चितता की स्थिति होगी।
5. फसलों के बोये जाने का क्षेत्र भी बदलेगा, कुछ नये स्थानों पर उत्पादन किया जाएगा।
6. खाद्य व्यापार में पूरे विश्व में असन्तुलन बना रहेगा।
7. पशुओं के लिए पानी, पशुशाला और ऊर्जा सम्बन्धी जरूरतें बढ़ेंगी विशेषकर दुग्ध उत्पादन हेतु।
8. समुद्रों व नदियों के पानी का तापमान बढ़ने के कारण मछलियों व जलीय जन्तुओं की प्रजनन क्षमता व उपलब्धता में कमी आएगी।
9. सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों पर प्रभाव पड़ेगा। कीटों की संख्या में वृ़द्धि होगी तो सूक्ष्म जीवाणु नष्ट होंगे।
10. वर्षा आधारित क्षेत्रों की फसलों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि सिंचाई हेतु पानी की उपलब्धता भी कम होती जाएगी।
 

फसलों पर प्रभाव

कृषि क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के जो सम्भावित प्रभाव दिखने वाले हैं वे मुख्य रूप से दो प्रकार के हो सकते हैं— पहला क्षेत्र आधारित तथा दूसरा फसल आधारित। अर्थात विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की प्रत्येक फसल पर अलग-अलग प्रभाव पड़ सकता है। गेहूँ और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसलें हैं। इनके उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है।
 

गेहूँ उत्पादन

1. अध्ययनों में पाया गया है कि यदि तापमान 2 से.ग्रे. के करीब बढ़ता है तो अधिकांश स्थानों पर गेहूँ की उत्पादकता में कमी आएगी। जहाँ उत्पादकता ज्यादा है (उत्तरी भारत में) वहाँ कम प्रभाव दिखेगा, जहाँ कम उत्पादकता है वहाँ ज्यादा प्रभाव दिखेगा।
2. प्रत्येक 1 से.ग्रे. तापमान बढ़ने पर गेहूँ का उत्पादन 4-5 करोड़ टन कम होता जाएगा। अगर किसान इसके बुवाई का समय सही कर लें तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है।
 

धान का उत्पादन

1. हमारे देश के कुल फसल उत्पादन में 42.5 प्रतिशत हिस्सा धान की खेती का है।
2. तापमान वृद्धि के साथ-साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी।
3. अनुमान है कि 2 से.ग्रे. तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जाएगा।
4. देश का पूर्वी हिस्सा धान उत्पादन में ज्यादा प्रभावित होगा। अनाज की मात्रा में कमी आ जाएगी।
5. धान वर्षा आधारित फसल है इसलिए जलवायु परिवर्तन के साथ बाढ़ और सूखे की स्थितियाँ बढ़ने पर इस फसल का उत्पादन गेहूँ की अपेक्षा ज्यादा प्रभावित होगा।

जलवायु परिवर्तन का पशुओं पर प्रभाव

फसलों और पेड़-पौंधो के साथ जानवरों पर भी जलवायु परिवर्तन का असर दिखेगा। सम्भावित प्रभाव इस प्रकार हो सकते हैं : 

1. तापमान बढ़ोत्तरी का जानवरों के दुग्ध उत्पादन व प्रजनन क्षमता पर सीधा असर पड़ेगा।
2. अनुमान लगाया जाता है कि तापमान वृद्धि से दुग्ध उत्पादन में सन् 2020 तक 1.6 करोड़ टन तथा 2050 तक 15 करोड़ टन तक गिरावट आ सकती है।
3. सबसे अधिक गिरावट संकर नस्ल की गायों में (0.63 प्रतिशत), भैसों में (0.50 प्रतिशत) और देसी नस्लों में (0.40 प्रतिशत) होगी।

संकर नस्ल की प्रजातियाँ गर्मी के प्रति कम सहनशील होती हैं इसलिए उनकी प्रजनन क्षमता से लेकर दुग्ध क्षमता ज्यादा प्रभावित होगी। जबकि देसी नस्ल के पशुओं में जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कुछ कम दिखेगा।

जलवायु परिवर्तन का जल संसाधन पर प्रभाव

पृथ्वी पर इस समय 140 करोड़ घन मीटर जल है। इसका 97 प्रतिशत भाग खारा पानी है जो समुद्र में है। मनुष्य के हिस्से में कुल 136 हजार घन मीटर जल ही बचता है। पानी तीन रूपों में पाया जाता है- तरल जो कि समुद्र, नदियों, तालाबों और भूमिगत जल में पाया जाता है, ठोस- जो कि बर्फ़ के रूप में पाया जाता है और गैस-वाष्पीकरण द्वारा जो पानी वातावरण में गैस के रूप में मौजूद होता है। पूरे विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दुगुनी हो जाती है जबकि धरती पर उपलब्ध पानी की मात्रा सीमित है। शहरी क्षेत्रों में, कृषि क्षेत्रों में और उद्योगों में बहुत ज्यादा पानी बेकार जाता है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि यदि सही ढंग से इसे व्यवस्थित किया जाए तो 40 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है।

जलवायु परिवर्तन के कारण कृषकों के लिए जल आपूर्ति की भयंकर समस्या हो जाएगी तथा बाढ़ एवं सूखे की बारम्बारता में वृद्धि होगी। अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में लम्बे शुष्क मौसम तथा फसल उत्पादन की असफलता बढ़ती जाएगी। यही नहीं, बड़ी नदियों के मुहानों पर भी कम जल बहाव, लवणता, बाढ़ में वृद्धि तथा शहरी व औद्योगिक प्रदूषण की वजह से सिंचाई हेतु जल उपलब्धता पर भी खतरा महसूस किया जा सकता है। हमारे जीवन में भूमिगत जल की महत्ता सबसे अधिक है। पीने के साथ-साथ कृषि व उद्योगों के लिए भी इसी जल का उपयोग किया जाता है। जनसंख्या बढ़ने के साथ ही पानी की माँग में बढ़ोत्तरी होने लगी है यह स्वाभाविक है परन्तु बढ़ते जल प्रदूषण और उचित जल प्रबन्धन न होने के कारण पानी आज एक समस्या बनने लगी है। सारी दुनिया में पीने योग्य पानी का अभाव होने लगा है।

गाँवों में जल के पारम्परिक स्रोत लगभग समाप्त होते जा रहे हैं। गाँव के तालाब, पोखर, कुओं का जल-स्तर बनाए रखने में मददगार होते थे। किसान अपने खेतों में अधिक से अधिक वर्षा जल का संचय करता था ताकि जमीन की आर्द्रता व उपजाऊपन बना रहे। परन्तु अब बिजली से ट्यूबवेल चलाकर और कम दामों में बिजली की उपलब्धता से किसानों ने अपने खेतों में जल का संरक्षण करना छोड़ दिया।
 

जलवायु परिवर्तन का मिट्टी पर प्रभाव

कृषि के अन्य घटकों की तरह मिट्टी भी जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रही है। रासायनिक खादों के प्रयोग से मिट्टी पहले ही जैविक कार्बन रहित हो रही थी अब तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी। मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव-विविधता घटती जाएगी। भूमिगत जल के स्तर का गिरते जाना भी इसकी उर्वरता को प्रभावित करेगा। बाढ़ जैसी आपदाओं के कारण मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं सूखे की वजह से इसमं बंजरता बढ़ती जाएगी। पेड़-पौधो के कम होते जाने तथा विविधता न अपनाए जाने के कारण उपजाऊ मिट्टी का क्षरण खेतों को बंजर बनाने में सहयोगी होगा।
 

जलवायु परिवर्तन का रोग व कीट पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की बढ़त पर जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। तापमान, नमी तथा वातावरण की गैसों से पौधो, फफून्द तथा अन्य रोगाणुओं के प्रजनन में वृद्धि तथा कीटों और उनके प्राकृतिक शत्रुओं के अन्तर्सम्बन्धों में बदलाव आदि दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे। गर्म जलवायु कीट-पंतगों की प्रजनन क्षमता में वृद्धि हेतु सहायक होता है। लम्बे समय तक चलने वाले वसन्त, गर्मी व पतझड़ के मौसम में अनेक कीटों की प्रजनन संख्या अपना जीवन चक्र पूरा करती है। जाड़ों में कहीं छुप कर ये लार्वा को बचाए रखते हैं। हवा के रुख में बदलाव से हवाजनित कीटों में वृद्धि के साथ-साथ बैक्टीरिया और फंगस में भी वृद्धि होती है। इनको नियन्त्रित करने के लिए अधिक से अधिक मात्रा में कीटनाशक प्रयोग किए जाते हैं जो अन्य बीमारियों को बढ़ावा देते हैं। जानवरों में बीमारियाँ भी समान रूप से बढ़ेगी।

जलवायु परिवर्तन के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की जरूरत है। कृषि वैज्ञानिकों की यहाँ कमी नहीं है, लेकिन कृषि वैज्ञानिक भी अभी जलवायु परिवर्तन को स्वीकार नहीं कर पा रहे है। इसलिए इस दिशा में कोई शोध शुरू नहीं हुआ। हमें इस क्षेत्र में तत्काल दो काम करने चाहिए। एक यह कि जलवायु-परिवर्तन से कृषि चक्र पर क्या फर्क पड़ रहा है यह जानना तथा दूसरे क्या इस परिवर्तन की भरपाई कुछ वैकल्पिक फसलें उगाकर पूरी की जा सकती है? साथ ही हमें ऐसी किस्म की फसलें विकसित करनी चाहिए जो जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में सक्षम हो, मसलन फसलों की ऐसी किस्मों का ईजाद जो ज्यादा गरमी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हो।

(लेखक गोरखपुर इनवायरमेण्टल एक्शन ग्रुप में मीडिया समन्वयक हैं)
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