Organic Farming

बैंगन के एकीकृत कीट प्रबंधन

विभिन्न सब्जियों के बीच, बैंगन प्रचलित है और देश भर में बड़े पैमाने पर पैदा किया जाता है। इसके उत्पादन में एक प्रमुख पहचान की कमी, कीटों,रोगों और नेमाटोड में वृद्धि के रूप में की गयी है, जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी उपज में बहुत घाटा होता है। इसकी नरम और कोमल प्रकृति तथा उच्च नमी और लागत के क्षेत्रों के अधीन इसकी खेती के कारण, बैंगन पर कीट हमले का खतरा अधिक होता है और एक अनुमान के अनुसार कम से कम 35-40% का नुकसान होता है।

कीट नाशकों के अधिक उपयोग से संबंधित समस्याएं

उतेरा खेती की आवश्यकता एवं महत्व

वर्तमान मे देश की बढ़ती जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के लिये सघन खेती ही एकमात्र विकल्प बनता जा रहा है, क्योकि बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण खेती की भूमि अन्य कार्यो के लिये परिवर्तित हो रही है एवं खेती का रकबा बढ़ाना अब संभव प्रतीत नही होता है। देश मे बहुत से क्षेत्र ऐसे है जहां की कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है तथा सिंचार्इ के सीमित साधन के कारण ही रबी मौसम में खेत खाली पड़ी रहती है अत: ऐसे क्षेत्रों के लिए सघन खेती के रूप मे उतेरा खेती एक महत्वपूर्ण विकल्प साबित हो सकती है। इस खेती का मुख्य उद्देश्य खेत में मौजूद नमी का उपयोग अगली फसल के अंकुरण तथा वृद्धि के लिए करना है। इस प्रकार

जैविक खेती : आधुनिक समय की मांग

भारत में कृषि की घटती जोत, संसाधनों की कमी, लगातार कम होती कार्यकुशलता और कृषि की बढ़ती लागत तथा साथ ही उर्वरक व कीटनाशकों के पर्यावरण पर बढ़ते कुप्रभाव को रोकने में निःसंदेह जैविक खेती एक वरदान साबित हो सकती है। जैविक खेती का सीधा संबंध जैविक खाद से है या यह कहें कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जबकि दूसरी हरित क्रांति की चर्चा जोरों पर है, वहीं हमें कृषि उत्पादन में मंदी के कारणों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा और कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु जल प्रबंधन, मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखने और फसलों को बीमारी से बचाने पर जोर देना होगा। यह कहना गलत न होगा कि जैविक खेती से तीनों समस्याओं का

रासायनिक खाद जमीन की मित्र या शत्रु

कृषि को स्थानीय बीजों और संसाधनों पर आधारित करने और रासायनिक खादों, कीटनाशकों से मुक्त करने का महत्व पर्यावरण की दृष्टि से तो समझा जाने लगा है, पर बहुत-से लोग अब भी इसकी व्यावहारिकता के बारे में सवाल उठाते हैं। उन्हें लगता है कि इससे पैदावार में कमी आएगी और साथ ही किसान की आय भी घटेगी। दूसरी ओर, दुनिया के अनेक भागों से ऐसे उदाहरण सामने आ रहे हैं जहां किसानों ने पर्यावरण की रक्षा वाली टिकाऊ खेती को अपना कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने में भी सफलता प्राप्त की। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ.

फसलों में सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों का महत्‍व

अधिक उत्‍पादन प्राप्‍त करने के कारण भूमि में पोषक तत्‍वों के लगातार इस्‍तेमाल से सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों की कमी दिनोदिन क्रमश: बढती जा रही है। किसान मुख्‍य पोषक तत्‍वों का उपयोग फलसों में अधिकांशत: करते है एवं सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों का लगभग नगण्‍य उपयोग होने की वजह से कुछ वर्षो से भूमि में सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों की कमी के लक्ष्‍ण पौधों पर दिखाई दे रहे है। पौधों में सूक्ष्‍म पोषक तत्‍वों की कमी होने पर उसके लक्ष्‍ण पौधों में प्रत्‍यक्ष रूप से दिखाई देने लगते है। इन पोषक तत्‍वों की कमी केवल इन्‍हीं के द्वारा पूर्ति करके की जा सकती है।

गाय के गोबर की खाद से धरती का पोषण हो

 यूरिया इत्यादि के कई वर्षों के उपयोग से धरती को कितनी हानि हई है और इस हानि को और अधिक न होने देने के लिये क्या-क्या कदम उठाए जायें। यूरिया का अंधाधुंध आयात भी एक बहुत बड़े षडयंत्र के साथ रची एक साजिश है। विदेशी यूरिया बनाने वाली कम्पनियों ने भारतीय अफसरों और ऊँँचे पदों पर राजनीतिज्ञों को इतना चढ़ाया कि सरकारी फाइलों में अफसर लोग लिखने पर बाध्य हो गये कि यूरिया अगर अधिक मात्रा में आयात और प्रयोग किया जाय तो खेतों की उपज बहुत अघिक बढ़ जायेगी। विशेषज्ञों को यह पता ही था कि धरती में यूरिया का अधिक उपयोग आने वाले समय में धरती को बंजर कर देगा। और यही हुआ भी। जहाँ किसानों ने यूरिया के साथ देसी खाद

ताकि खेत का पानी खेत में

देश में मध्यवर्ती भाग विशेष कर मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, बुन्देलखण्ड, ग्वालियर, राजस्थान का कोटा, उदयपुर, गुजरात का सौराष्ट्र, कच्छ, व महाराष्ट्र के मराठवाड़ा, विदर्भ व खानदेश में वर्ष 2000-2001 से 2002-2003 में सामान्य से 40-60 प्रतिशत वर्षा हुई है। सामान्य से कम वर्षा व अगस्त सितंबर माह से अवर्षा के कारण, क्षेत्र की कई नदियों में सामान्य से कम जल प्रवाह देखने में आया तथा अधिकतर कुएं और ट्यूबवेल सूखे रहे। नतीजन सतही जल स्त्रोत सिकुड़ते जा रहे है व भू-जल स्तर में गिरावट ने भीषण पेयजल संकट को उत्पन्न किया ही है। साथ में कृषि उत्पादन भी प्रभावित हो रहा है वह चिंता का विषय है। बदलते मौसम के

केले की उन्नत तकनीकी खेती

विश्व में केला एक महत्वपूर्ण फसल है। भारतवर्ष में केले की खेती लगभग 4.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की जा रही है। जिससे 180 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है। महाराष्ट्र में सबसे अधिक केले का उत्पादन होता है। महाराष्ट्र के कुल केला क्षेत्र का केवल जलगाँव जिले में ही 70 प्रतिशत क्षेत्र में केले की खेती की जाती है।देशभर के कुल केला उत्पादन का लगभग 24 प्रतिशत भाग जलगँाव जिले से प्राप्त होता है। केले को गरीबों का फल कहा जाता है। केले का पोषक मान अधिक होने के कारण केरल राज्य एवं युगांडा जैसे देशो में केला प्रमुख खाद्य फल है।केले के उत्पादों की बढती माँग के कारण केले की खेती का महत्व दिन प्रतिदिन बढ़ता

केसर : विश्व को कश्मीर की सौगात

अभी सूर्य ने अपनी प्रथम किरण भी नहीं बिखेरी थी कि पीठ पर टोकरियाँ उठाए महिलाओं, बच्चों तथा मर्दों की कतारें खेतों की ओर निकल पड़ीं। इन्हें खेतों से विश्व को कश्मीर की सौगात- केसर चुनना है। वे केसर के फूलों के कंग (केसर के फूलों के मध्य विकसित रेशे) चुनने निकले हैं। 

मखाने की खेती से किसान हुए खुशहाल

मखाने का उत्पादन उत्तरी बिहार के कुछ जिलों में बहुतायत रूप से होता है। इसकी माँग देश और विदेशों में काफी है। इसका उत्पादन तालाबों और सरोवरों में ही होता है। दरभंगा और मधुबनी जिले में मखाना का उत्पादन अधिक होता है। इसका कारण यह है कि वहाँ हजारों की संख्या में छोटे-बड़े तालाब और सरोवर हैं जो वर्षपर्यन्त भरे रहते हैं।

जब देश के अधिकांश हिस्से पानी की कमी का शिकार हैं, उत्तरी बिहार देश के उन कुछ चुनिन्दा अंचलों में है जहाँ पानी की कोई कमी नहींं है। इसलिए यहाँ जरूरत जल आधारित ऐसे उद्यमों को बढ़ावा देने की है जो रोजगार देने के साथ-साथ जल की गुणवत्ता भी बनाए रखें।

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